Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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प्रभु सेवक तो ऐसे सिटपिटाए कि फिर जबान न खुली। धीरे से उठकर चले गए। सोफ़िया भी एक क्षण के लिए सन्नाटे में आ गई। फिर सोचने लगी-अगर पापा ने आंदोलन किया भी, तो उसका नतीजा कहीं बरसों में निकलेगा, और यही कौन कह सकता है कि क्या नतीजा होगा; अभी से उसकी क्या चिंता? उसके गुलाबी ओठों पर विजय-गर्व की मुस्कराहट दिखाई दी। इस समय वह इंदु के चेहरे का उड़ता हुआ रंग देखने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर सकती थी-काश, मैं वहाँ मौजूद होती! देखती तो कि इंदु के चेहरे पर कैसी झेंप है। चाहे सदैव के लिए नाता टूट जाता; पर इतना जरूर कहती-देखा अपने राजा साहब का अधिकार और बल? इसी पर इतना इतराती थीं? किंतु क्या मालूम था कि क्लार्क इतनी जल्दी करेंगे।
भोजन करके वह अपने कमरे में गई और रानी इंदु के मानसिक संताप का कल्पनातीत आनंद उठाने लगी-राजा साहब बदहवास, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, आकर इंदु के पास बैठ जाएँगे। इंदु देवी लिफाफा देखेगी, आँखों पर विश्वास न आएगा; फिर रोशनी तेज करके देखेंगी, तब राजा के आँसू पोछेंगी-आप व्यर्थ इतने खिन्न होते हैं, आप अपनी ओर से शहर में डुग्गी पिटवा दीजिए कि हमने सूरदास की जमीन सरकार से लड़कर वापस दिला दी। सारे नगर में आपके न्याय की धूम मच जाएगी। लोग समझेंगे, आपने लोकमत का सम्मान किया है। खुशामदी टट्टू कहीं का! चाल से विलियम को उल्लू बनाना चाहता था। ऐसी मुँह की खाई है कि याद ही करेगा। खैर, आज न सही, कल, परसों, नरसों,कभी तो इंदुदेवी से मुलाकात होगी ही। कहाँ तक मुँह छिपाएँगी।
यह सोचते-सोचते सोफ़िया मेज पर बैठ गई और इस वृत्तांत पर एक प्रहसन लिखने लगी। ईष्या से कल्पना-शक्ति उर्वर हो जाती है। सोफ़िया ने आज तक कभी प्रहसन न लिखा था। किंतु इस समय ईर्ष्या के उद्गार में उसने एक घंटे के अंदर चार दृश्यों का एक विनोदपूर्ण ड्रामा लिख डाला। ऐसी-ऐसी चोट करनेवाली अन्योक्तियाँ और हृदय में चुटकियाँ लेनेवाली फबतियाँ लेखनी से निकलीं कि उसे अपनी प्रतिभा पर स्वयं आश्चर्य होता था। उसे एक बार यह विचार हुआ कि मैं यह क्या बेवकूफी कर रही हूँ। विजय पाकर परास्त शत्रु को मुँह चिढ़ाना परले सिरे की नीचता है, पर ईष्या में उसने समाधान के लिए एक युक्ति ढूँढ़ निकाली-ऐसे कपटी, सम्मान-लोलुप, विश्वास-घातक, प्रजा के मित्र बनकर उसकी गर्दन पर तलवार चलानेवाले, चापलूस रईसों की यही सजा है, उनके सुधार का एकमात्र साधन है। जनता की निगाहों में गिर जाने का भय ही उन्हें सन्मार्ग पर ला सकता है। उपहास का भय न हो, तो वे शेर हो जाएँ, अपने सामने किसी को कुछ न समझें।
प्रभु सेवक मीठी नींद सो रहे थे। आधी रात बीत चुकी थी। सहसा सोफ़िया ने आकर जगाया, चौंककर उठ बैठे और यह समझकर कि शायद इसके कमरे में चोर घुस आए हैं, द्वार की ओर दौड़े। गोदाम की घटना आँखों के सामने फिर गई। सोफी ने हँसते हुए उनका हाथ पकड़ लिया और पूछा-कहाँ भागे जाते हो?
प्रभु सेवक-क्या चोर हैं? लालटेन जला लूँ?
सोफ़िया-चोर नहीं है, जरा मेरे कमरे में चलो, तुम्हें एक चीज सुनाऊँ। अभी लिखी है।
प्रभु सेवक-वाह-वाह! इतनी-सी बात के लिए नींद खराब कर दी। क्या फिर सबेरा न होता, क्या लिखा है?
सोफ़िया-एक प्रहसन है।
प्रभु सेवक-प्रहसन! कैसा प्रहसन? तुमने प्रहसन लिखने का कब से अभ्यास किया?
सोफ़िया-आज ही। बहुत जब्त किया कि सबेरे सुनाऊँगी; पर न रहा गया।
प्रभु सेवक सोफ़िया के कमरे में आए और एक ही क्षण में दोनों ने ठट्ठे मार-मारकर हँसना शुरू किया। लिखते समय सोफ़िया को जिन वाक्यों पर जरा भी हँसी न आई थी, उन्हीं को पढ़ते समय उससे हँसी रोके न रुकती थी। जब कोई हँसनेवाली बात आ जाती, तो सोफी पहले ही से हँस पड़ती, प्रभु सेवक मुँह खोले हुए उसकी ओर ताकता, बात कुछ समझ में न आती, मगर उसकी हँसी पर हँसता, और ज्यों ही बात समझ में आ जाती, हास्य-धवनि और भी प्रचंड हो जाती। दोनों के मुख आरक्त हो गए, आँखों से पानी बहने लगा, पेट में बल पड़ गए, यहाँ तक कि जबड़ों में दर्द होने लगा। प्रहसन के समाप्त होते-होते ठट्ठे की जगह खाँसी ने ले ली। खैरियत थी कि दोनों तरफ से द्वार बंद थे, नहीं तो उस नि:स्तब्धता में सारा बँगला हिल जाता।
प्रभु सेवक-नाम भी खूब रखा, राजा मुछेंद्रसिंह। महेंद्र और मुछेंद्र की तुक मिलती है! पिलपिली साहब के हंटर खाकर मुछेंद्रसिंह का झुक-झुककर सलाम करना खूब रहा। कहीं राजा साहब ज़हर न खा लें।
सोफ़िया-ऐसा हयादार नहीं है।
प्रभु सेवक-तुम प्रहसन लिखने में निपुण हो।
थोड़ी देर में दोनों अपने-अपने कमरे में सोये। सोफ़िया प्रात:काल उठी और मि. क्लार्क का इंतजार करने लगी। उसे विश्वास था कि वह आते ही होंगे, उनसे सारी बातें स्पष्ट रूप से मालूम होंगी, अभी तो केवल अफवाह सुनी है। सम्भव है, राजा साहब घबराए हुए उनके पास अपना दु:खड़ा रोने के लिए आए हों; लेकिन आठ बज गए और क्लार्क का कहीं पता न था। वह भी तड़के ही आने को तैयार थे; पर आते हुए झेंपते थे कि कहीं सोफ़िया यह न समझे कि इस जरा-सी बात का मुझ पर एहसान जताने आए हैं। इससे अधिक भय यह था कि वहाँ लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगा, या तो मुझे देखकर लोग दिल-ही-दिल में जलेंगे, या खुल्लमखुल्ला दोषारोपण्ा करेंगे। सबसे ज्यादा खौफ ईश्वर सेवक का था कि कहीं वह दुष्ट, पापी, शैतान, काफिर न कह बैठें। वृध्द आदमी हैं, उनकी बातों का जवाब ही क्या? इन्हीं कारणों से वह आते हुए हिचकिचाते थे और दिल में मना रहे थे कि सोफ़िया ही इधर आ निकले।
नौ बजे तक क्लार्क का इंतजार करने के बाद सोफ़िया अधीर हो उठी। इरादा किया, मैं ही चलूँ कि सहसा मि. जॉन सेवक आकर बैठ गए और सोफ़िया को क्रोधोन्मत्ता नेत्रों से देखकर बोले-सोफी, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। तुमने मेरे सारे मंसूबे खाक में मिला दिए।
सोफ़िया-मैंने क्या किया? मैं आपका आशय नहीं समझी।
जॉन सेवक-मेरा आशय यह है कि तुम्हारी ही दुष्प्रेरणा से मि. क्लार्क ने अपना पहला हुक्म रद्द किया है।
सोफ़िया-आपको भ्रम है।
जॉन सेवक-मैंने बिना प्रमाण के आज तक किसी पर दोषारोपण नहीं किया। मैं अभी इंदुदेवी से मिलकर आ रहा हूँ। उन्होंने इसके प्रमाण दिए कि यह तुम्हारी करतूत है।
सोफ़िया-आपको विश्वास है कि इंदु ने मुझ पर जो इलजाम रखा है, वह ठीक है?
जॉन सेवक-उसे असत्य समझने के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है।
सोफ़िया-उसे सत्य समझने के लिए यदि इंदु का वचन काफी है, तो उसे असत्य समझने के लिए मेरा बचन क्यों काफी नहीं है?
जॉन सेवक-सच्ची बात विश्वासोत्पादक होती है।
सोफ़िया-यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अपनी बातों में वह नमक-मिर्च नहीं लगा सकती; लेकिन मैं इसका आपको विश्वास दिलाती हूँ कि इंदु ने हमारे और विलियम के बीच में द्वेष डालने के लिए यह स्वाँग रचा है।
जॉन सेवक ने भ्रम में पड़कर कहा-सोफी मेरी तरफ देख। क्या तू सच कह रही है?
सोफ़िया ने लाख यत्न किए कि पिता की ओर निश्शंक दृष्टि से देखे; किंतु आँखें आप-ही-आप झुक गईं। मनोवृत्ति वाणी को दूषित कर सकती है; अंगों पर उसका जोर नहीं चलता। जिह्ना चाहे नि:शब्द हो जाए; पर आँखें बोलने लगती हैं। मिस्टर जॉन सेवक ने उसकी लज्जा-पीड़ित आँखें देखीं और क्षुब्ध होकर बोले-आखिर तुमने क्या समझकर ये काँटे बोए?
सोफ़िया-आप मेरे ऊपर घोर अन्याय कर रहे हैं। आपको विलियम ही से इसका स्पष्टीकरण कराना चाहिए। हाँ, इतना अवश्य कहूँगी कि सारे शहर में बदनाम होने की अपेक्षा मैं उस जमीन का आपके अधिकार से निकल जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।

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